इन्होने पढ़ा है मेरा जीवन...सो अब उसका हिस्सा हैं........

Saturday, July 1, 2017

नए पुराने मौसम


मौसम अपने संक्रमण काल में है|धीरे धीरे बादलों में पानी जमा हो रहा है पर बरसने को तैयार नहीं...शायद उनकी आसमान से यारी छूट नहीं रही !
मोहब्बत,यारियों और बादलों के भी अपने निराले ढंग हैं...मनमर्ज़ियों वाले!
सूनी दोपहर को मैं छत से कपड़े उठाने गयी तो सामने सड़क के उस पार लगे बांस के झुरमुट के नीचे दो सिर नज़र आये...आपस में टकराए हुए....
मैंने थोड़ा ढिठाई दिखाई और उन्हें ध्यान से देखने लगी...दोनों के चेहरे उदास थे
| शायद जुदाई के पल होंगे....हाँ सेमेस्टर एक्ज़ाम्स निपटे हैं,अपने-अपने घर जाने की मजबूरी सामने खड़ी होगी| लड़की की आँखें उदास थीं मगर गीली नहीं....अब लड़कियां आसानी से रोती नहीं!
तभी लड़के ने मोबाइल निकला और अपने सामने कर लिया...दोनों के सिर और क़रीब आये....चेहरे आपस में टकराए...लड़की के गालों का गुलाबी रंग लड़के को हौले से छू गया!!
क्लिक....एक सेल्फी....जुदाई को आसान करने के लिए मोहब्बत की ताज़ा निशानी तुरत-फ़ुरत तैयार थी!
लड़की अब मुस्कुरा रही थी, मैं भी मुस्कुराते हुए भीतर चली आयी...
उन दोनों के मन का कुछ हिस्सा मेरे साथ चला आया....मैंने बरसों से बंद पड़ी दराज़ खोल ली|
डायरियाँ.....जिनमें छिपे है कुछ पनीले दिन....
ये मेरा सबसे प्रिय हथियार हैं, जिनके पन्नों के नुकीले कोनों से अकेलेपन को टोंच टोंच कर रफ़ादफ़ा कर दिया करती हूँ| मैंने सालों पुरानी एक डायरी निकाली और धूल झाड़ने लगी...डायरी के भीतर से एक रुमाल बाहर सरक आया....
सफ़ेद मुलायम रुमाल,जिसके कोने पर लाल रेशमी धागे से तुम्हारे नाम का पहला अक्षर कढ़ा हुआ था|
हमारी जुदाई को आसान करने को तुमने दी थी अपनी निशानी....मोबाइल सेल्फी से कहीं ज़्यादा रूमानी...
सच!!तब यारियों के अपने ही ढंग थे....
 अनुलता राज नायर

 दोस्तों ब्लॉग पर वापसी की है....मिलते रहने की उम्मीद के साथ.........

Tuesday, January 10, 2017

प्रेम- विवाह से पहले या बाद......

बदलते दौर में सब कुछ अलग सूरत अख्तियार करता जा रहा है.....यहाँ तक की भावनाएं भी बदल गयी हैं....सोच तो बदली ही है|
प्रेम जैसा स्थायी भाव भी कुछ बदला बदला लगने लगा है...

दैनिक भास्कर की पत्रिका अहा! ज़िन्दगी में प्रकाशित मेरी लिखी आवरण कथा आपके साथ साझा कर रही हूँ| उम्मीद है आपको पसंद आयेगी....
http://epaper.bhaskar.com/patna-city/patna-aha-zindagi/397/09012017/bihar/4/



विवाह के बाद प्रेम या प्रेम के बाद विवाह क्या है सही रास्ता


प्रेम जीवन की सबसे मूलभूत आवश्यकता है इसमें कोई दो राय नहीं|
प्रेम से पेट नहीं भरता ये बात शाब्दिक अर्थों में तो एक दम सही है मगर हमारा पेट भरा और मन ख़ाली हो तब भी कहाँ बात बनती है|
प्रेम का होना ही वास्तव में जीवन का होना है| एक चित्रकार को रंगों से प्रेम होता है तो रचनाकार को शब्दों से, कलाकार को मंच से तो देशभक्त को देश से| याने प्रेम का स्वरुप भिन्न हो सकता है मगर उसके अस्तित्व को कतई नकारा नहीं जा सकता|
प्रेम के होने में ही जीवन का आनंद है फिर चाहे वो किसी से भी हो,कैसा भी हो,कभी भी हो.....मगर प्रेम का डंका पीटने वाली संसार की सबसे बड़ी संस्था याने विवाह की जीवन में कितनी ज़रुरत है ये एक विवाद का विषय है......
मैंने अपने आसपास के कोई दस युवाओं से बात की जिनकी उम्र 25 के आस-पास है| और उनमें से ज़्यादातर विवाह की आवश्यकता पर ही प्रश्न चिन्ह लगाते है| क्यूंकि उनमें प्रेम को समझने की गंभीरता नहीं है और प्रेम या उनके शब्दों में कहूँ तो कम्पेटिबिलिटी याने आपसी सामंजस्य के बिना साथ रहने का औचित्य ही क्या है.....और प्रेम हो गया तब किसी और बंधन की आवश्यकता ही क्या है !
कुछ हद तक वे ठीक भी हैं....प्रेम को स्त्री पुरुष के सन्दर्भ में याने रूमानी तौर पर परिभाषित करने पर जटिलता बढ़ जाती है| मानव मन में इतने जंजाल होते हैं कि सही रास्ता पकड़ना बड़ा मुश्किल हो जाता है|
और अगर प्रसंग विवाह का हो तो प्रेम जैसे छलिया बन जाता है| न जाने किस किस रूप में विद्यमान रहता है....कभी होकर भी न होने का स्वांग रचता है और न हो तो अपने होने का ढोंग भी करता है| प्रेम और विवाह यूँ तो एक ही सिक्के के दो पहलु माने जा सकते हैं परन्तु ये भी सच है कि सिक्के में कभी एक चेहरा ऊपर रहता है तो कभी दूसरा| याने ज़रूरी नहीं कि वैवाहिक जोड़ों में प्रेम हो या हर प्रेमी विवाह के बंधन में बंधा हो |

हमारे देश में आज भी अक्सर अरेंज्ड मैरिज होती हैं याने बिना प्रेम के विवाह| जहाँ दो अनजान इंसान एक दूसरे के बारे में उतना ही जानते हैं जितना उन्हें बताया गया है | आमतौर पर ऐसी शादियों का आधार शक्ल-सूरत,आर्थिक और सामाजिक स्थिति,शिक्षा आदि ही होते हैं | और ऐसे गठबंधन इस उम्मीद से किये जाते हैं कि साथ रहते रहते अंततोगत्वा प्रेम हो ही जाएगा|
अब दो परिस्थितियां बनती हैं- एक तो ये कि पति-पत्नी के स्वभाव,मानसिक और बौद्धिक स्तर,उनकी रुचियाँ,उनकी प्राथमिकताएं इतनी भिन्न हों कि प्रेम के अंकुरण के लिए न ज़मीन मिले न खाद मिट्टी.....
याने कोई ऐसे तत्व न हों कि प्रेम उपज सके......ये स्थिति सबसे कष्टकारी है कि आपने साथ रहने का निर्णय लिया और उस पर समाज और सरकार की मुहर भी लगा ली और अब एक छत के नीचे रहना दुश्वार हो गया हो........
मगर बहुत सी जोड़ियां ऐसी सूरत में भी साथ रहती हैं जिसके कुछ स्पष्ट और कुछ लुके-छिपे कारण रहते हैं | सबसे बड़ा कारण है किसी एक का जो आमतौर पर स्त्री ही होती है,आर्थिक रूप से स्वतंत्र ना होना| और भी दूसरे कारण हैं जैसे बच्चे....क्यूंकि अलगाव का दंश सबसे गहरा बच्चों को ही लगता है| तो माँ-बाप उनकी खातिर प्रेम के अभाव में भी साथ रहना गवारा कर लेते हैं| फिर समाज भी एक कारण रहता है कि लोग क्या कहेंगे- इसलिए चारदीवारी के भीतर जितने भी मतभेद हों बाहर तो ये गलबहियाँ डाल कर ही घूमेंगे| कई बार युगल आपसी सामंजस्य न होने पर अलग-अलग ही रहने लगते हैं और कानूनी रूप से उनका रिश्ता बना रहता है....याने जैसे विवाह होकर भी नहीं हुआ हो | मगर प्रेम में ऐसी स्थिति नहीं होती....प्रेम या तो होगा या नहीं होगा.....
हालाँकि ये चोंचले मंध्यम वर्गीय परिवारों के हैं,उच्च्वार्गीय तबके में समाज को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी जाती|
अरेंज्ड मैरिज के बाद की दूसरी परिस्थिति ये है कि पति-पत्नी बेहतरीन दोस्त बन जाएँ ,अपनी हर बात साझा करें,एक दूसरे का ख्याल रखें और उनके बीच प्यार इसी दोस्ती की शक्ल में सदा हरा भरा बना रहे| यहाँ प्यार का स्वरुप कुछ अलग हो सकता है जैसे मान लीजिये कि पत्नी आत्मनिर्भर नहीं है और पति अपनी पूरी तनख्वाह उसके हाथ में रख देता है तो यकीन मानिए ये उसका प्रेम है|
वहीं पत्नी खाने पर हमेशा पति का इंतज़ार करती हो तो ये उसका प्रेम है......हम इसे उसकी आदत या दिनचर्या का हिस्सा भी मान सकते हैं मगर वैवाहिक जोड़ों में प्रेम ऐसे ही अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराता है| आश्वस्ति और समर्पण किसी भी रिश्ते की रीढ़ की हड्डी होते है....जिन्हें विश्वास और प्रेम के तंतु सहारा दिए रहते हैं |

प्रेम और विवाह के बीच तब एक और परिस्थिति बनती है जब जोड़ों में आपसी प्रेम तो होता है मगर वे विवाह नहीं करना चाहते......याने बंधनों से परे रहना उनको भाता है | शायद प्रतिबद्धता याने कमिटमेंट से बचना चाहता है आज का युवा वर्ग| ऐसे ही विचारों की देन हैं ‘लिव इन रिलेशनशिप’ |
ऐसे रिश्तों को समाज का अधिकाँश वर्ग सवालिया नज़र से देखता है मगर ऐसे युगल समाज की ओर ही कब देखते हैं.......
प्रेम जैसे एहसास से जुड़े किसी भी रिश्ते में प्रेम के अलावा कोई दूसरा तार या सपोर्ट सिस्टम नहीं होता है इसलिए ये रिश्ता हमेशा टूटने की रिस्क अपने साथ लिए चलता है| क्यूंकि यहाँ माँ-बाप, रिश्तेदार, बच्चे,समाज या कानून जैसे कोई बंदिश नहीं कोई बंधन नहीं.......याने जब दिल चाहा अपना सामान उठाया और निकल पड़े....मगर ऐसा तभी होगा जब पहले प्रेम घर को छोड़ेगा.....मन को छोड़ेगा|

प्रेम होना और विवाह न होना की बात हो तो ज़हन में सबसे पहले मशहूर कवयित्री अमृता प्रीतम और इमरोज़ साहब का ख़याल आता है | इस जोड़े ने इकतालीस बरस एक साथ एक ही छत के नीचे बिताये बिना किसी वैवाहिक बंधन के........
अमृता की ज़िन्दगी में झाँकने से प्रेम के हज़ारों रंग दिख जायेंगे......उन्होंने जिसे भी चाहा पूरी शिद्दत से चाहा फिर वो चाहे उनका साहिर से इकतरफ़ा प्रेम हो या इमरोज़ की ओर प्लेटोनिक झुकाव|
वर्तमान में लिव इन रिलेशनशिप के दुखद नतीजे देखने में आ रहे हैं जहाँ लडकियाँ या तो आत्महत्या कर रही हैं या किसी मानसिक विषाद में घिर रही हैं| प्रेम के लिए अपना करियर दांव पर लगा रही हैं या कहीं कहीं करियर के लिए प्रेम की बलि दे दी जाती है|
ऐसे रिश्तों की नाकामयाबी के पीछे सबसे बड़ा कारण है प्रेम के स्वरुप को न समझ पाना| जैसे अतिमहत्त्वाकांक्षी लड़कियां जब अपने बॉस,मेंटर या एम्पलॉयर के हुनर,ओहदे या शानोशौकत से प्रभावित होने लगती हैं तो अक्सर ये देखा गया है कि वक्त के साथ धीरे धीरे उनका मन भी उस ओर झुकने लगता है.......और उनका नाज़ुक दिल समझने लगता है कि ये मोहब्बत है|
जैसे फिल्म इंडस्ट्री में नवोदित अभिनेत्रियाँ डायरेक्टर या अपनी पहली फिल्म के हीरो की तरफ झुक जाती हैं....याने आकर्षण को प्यार समझने की गलती बहुत आम है और इसी आकर्षण के चलते युगल साथ रहने लगते हैं और फिर दुष्परिणाम किसी भयावाह शक्ल में सामने आते हैं |

प्रेम विवाहों के टूटते या मोहब्बत के रिश्तों के त्रासद अंत को देखते हुए ये मान लेना ग़लत है कि प्रेम कोई बहुत कठिन काम है | प्रेम बहुत सहज और सरल भावना है......ये किसी शिष्य का गुरु से हो सकता है,किसी भक्त का अपने ईश से.....जैसे मीरा का कृष्ण से प्रेम भक्ति थी और सुदामा का प्रेम दोस्ती......
प्रेम बड़ी मधुर अनुभूति है......ये बड़ी सहजता से पैदा होती है और उतनी ही सरलता से स्वीकारी भी जानी चाहिए मगर जैसे ही बात स्त्री पुरुष के प्रेम की होती है इसमें कई प्रश्नचिन्ह लगा दिए जाए हैं,सवालों की गोलियाँ बरसाई जाती हैं और एक लिखित नियमावली थमा दी जाती है कि ये सही है ये ग़लत| जैसे किसी युगल का प्रेम में रहना समाज को स्वीकार्य है मगर सारी ज़िन्दगी प्रेम में रहना और विवाह न करना कतई स्वीकार्य नहीं|
कोई स्त्री या पुरुष भी अगर किसी रिलेशनशिप में है तो उसका अगला कदम विवाह हो ये बहुत ज़रूरी है| माता-पिता, परिवार के लोग,अड़ोसी पड़ोसी सभी आते जाते सवाल कर सकते हैं कि “ भई शादी कब कर रहे हो......गोया मोहब्बत इस सरकारी मोहर के बिना नाजायज़ है| ऐसे जोड़ों के चरित्र को भी शक की नज़र से देखा जाता है | यदि आप विवाहित हैं और आपके बीच प्रेम जैसी कोई भावना नहीं,आपके घर से रोज़ लड़ाई झगड़े,बर्तन पटकने की आवाजें आ रही हैं,स्त्री की आँखों के नीचे काले घेरे हैं,पुरुष ने कई दिन से हजामत नहीं बनायी हो तब भी समाज को आपसे कोई दिक्कत नहीं है| लोगों के पेट में दर्द तब होता है जब दो लोग प्रेम में हों पर बंधनों से परे हों |
इसकी वजह क्या हो सकती है आख़िर?
एक वजह तो दकियानूसी सोच है...याने परम्पराओं को ढोना है बस!!
दूसरी एक सकारात्मक वजह ये मानी जा सकती है कि विवाह से रिश्ते में ज़्यादा स्थायित्व की उम्मीद बन जाती है | अगर युगल बच्चा पैदा करना चाहता है तो कानूनी दांव पेंच नहीं होते|
लेकिन अगर समाज बंधनों से परे इन प्रेम संबंधों को खुले ह्रदय से स्वीकार ले याने लिवइन रिलेशनशिप को जैसे कानूनी मान्यता मिली है वैसे समाज भी हरी झंडी दे दे तो रिश्तों में खुलापन आएगा| प्रेमी निश्चिन्त होकर रह सकेंगे...उनका रिश्ता खुल कर सांस ले सकेगा| अपराधों में भी कमी आयेगी| 

याने हर बात की एक बात है कि प्रेम का ओहदा सबसे ऊपर है......समाज की मान्यताओं से कहीं ज़्यादा ऊपर| तभी तो कृष्ण और राधा के रिश्ते को कृष्ण और रुक्मणी के वैवाहिक संबंधों के मुकाबले बहुत ऊंचा दर्ज़ा प्राप्त है| गर्गसंहिता के मुताबिक जिस तरह पार्वती शिव की शक्ति है उसी तरह राधा कृष्ण की शक्ति हैं| कृष्ण के प्रति राधा का प्रेम निस्वार्थ भाव से था....कहते हैं एक बार रुक्मणी ने कृष्ण को गर्म दूध पीने के लिए दे दिया था तब राधा के तन पर छाले पड़ गए थे......
प्रेम ना बाड़ी उपजे । प्रेम ना हाट बिकाय ॥
बल्कि ये तो प्रेमियों के दिल में छिपा बैठा रहता है और मुस्कुराने की वजह बनता है|
याने विवाह के पहले प्रेम हो या विवाह के बाद पनपे,सबसे ज़रूरी है प्रेम का होना......कि इन्हीं ढाई आख़रों में ज़िदगी का सुख छिपा है |
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अनुलता राज नायर - भोपाल


Sunday, April 24, 2016

अहा ! ज़िन्दगी



दैनिक भास्कर की पत्रिका - अहा ! ज़िन्दगी  में प्रकाशित मेरी एक आवरण कथा....

 

बदलाव में छुपा है भविष्य



समूचे ब्रह्माण्ड में जो भी बना है उसे मिटना होता है,नव निर्माण के लिए ये एक आवश्यक शर्त है और प्रकृति का नियम भी |वक्त के साथ संस्कृति बदलती है, समाज बदलता है, साहित्य बदलता है | अर्थात समग्र मानव जाति बदलाव की प्रक्रिया से होकर गुज़रती है और इसे ही विकास की संज्ञा दी जाती है |
 
भोजन को सुपाच्य और स्वादिष्ट बनाने के लिए उसके मूल स्वरुप में जिस तरह बदलाव किये जाते हैं वैसे ही नीतियों, नियमों, विचारधाराओं और मानसिकताओं में लाये गए बदलाव मानव का जीवन बेहतर और सरल बनाते हैं | बदलाव न होना याने जड़ता याने स्थितियों का जस का तस बने रहना......अर्थात भविष्य की आमद बदलाव की सीढ़ियों पर चढ़ कर ही होती है | समाज में,सोच में और तकनीकियों में आये बदलावों में ही छिपी है विकास की चाभी |
समाज में रहना और उसके कायदे कानूनों को मानना मानव का सहज स्वभाव है और आवश्यकता भी| ज़माने से चली आ रही प्रथाओं में उल्लेखनीय बदलाव आया है | जैसे आज हमारे लिए ये बात कल्पना से परे है कि पति की मृत्यु के पश्चात स्त्री को उसके साथ चिता में जल मरना होगा....मगर हमारा अतीत ऐसी घटनाओं से भरा हुआ है जब स्त्री ने पति की चिता पर प्राण त्यागे और फिर उसको इस “सत्कर्म” के लिए देवी की तरह पूजा गया |

आज के दौर में स्त्री का अपने पति के प्रति प्रेम और समर्पण प्रदर्शित करने का तरीका बदल गया है जो निश्चित रूप से एक बेहतर भविष्य के आगमन का शुभ संकेत है| स्त्रियाँ अब बेशक मंगलसूत्र,सिन्दूर या बिछिये नियमपूर्वक धारण नहीं करतीं मगर वे हाथ से हाथ और कंधे से कन्धा मिलाकर अपने पति और परिवार के लिए पूरे समर्पण और स्नेह से काम करती हैं |
बीते कई वर्षों में बाल विवाह में रोक, विधवा विवाह को कानूनी मंजूरी मिलना, भ्रूण परिक्षण और कन्या भ्रूण ह्त्या पर रोक, लड़कियों को शिक्षा के अधिकार , बेटियों को जायदाद में हिस्सा मिलने जैसे कई कानूनी बदलाव आये हैं जो भविष्य को नयी उम्मीद से भरते हैं |
बदलाव अस्तित्व के संरक्षण के लिए ज़रूरी है | चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत सर्वाइवल ऑफ़ द फिट्टेस्ट अर्थात योग्यतम की उत्तरजीविता,याने जो योग्य होगा वही जीवित रह पायेगा...और योग्यता की परिभाषा समय के साथ बदलती रही है,योग्य होने की पात्रता हर युग में अलग रही है |
पिछले दशकों में इंटरनेट सबसे बड़ी क्रांति के रूप में उभरा और जिसकी वजह से मनुष्य के जीने के तौर तरीके पूरी तरह से बदल गए| कंप्यूटर का ज्ञान होना वक्त की ज़रुरत बन गयी और इसने बहुत सारे सकारात्मक बदलाव लाये | बहुत बड़े और विस्तृत सन्दर्भ में बात करने की बजाय यहाँ छोटे छोटे बदलावों और उनसे जुड़े फायदों पर जोर देना बेहतर होगा |
जैसे एक छोटा सा बदलाव आया है चिट्ठियों के दौर का गुज़र जाना और ईमेल का आना | उँगलियों से चंद बटन दबाये और चिट्ठी तैयार, फिर एक क्लिक के साथ पल भर में ख़त अपने गंतव्य तक पहुँच जाता है | डाकघर से डाक टिकट या अंतर्देशीय पत्र लाकर लिखना फिर पोस्ट बॉक्स में डाल कर आने की जटिल प्रक्रिया से हम बच गए | और ख़त कब पहुंचेगा,पहुंचेगा भी या नहीं ये उहापोह भी समाप्त हो गयी| कितना आसान हो गया है अब अपनों से जुड़े रहना |
हाँ गुलाबी खुशबूदार कागजों पर सुनहरी रोशनाई से लिखे खतों जैसी मुलायमियत, और धड़कते दिल से लिफ़ाफ़े पर लिखी हैण्डराइटिंग को पहचानते हुए किसी प्रिय का ख़त खोलने का रोमांच ईमेल में नहीं है मगर कुछ पाने के लिए कुछ खोना तो पड़ता है और ये बदलाव निश्चित तौर पर बेहतरी के लिए ही कहा जा सकता है |
वैसे ही टेलीग्राम और मनी आर्डर का बंद होना भावनात्मक रूप से ज़रा सा आहत ज़रूर कर गया मगर वो भी उस पीढ़ी को जिसने वो गुज़रा ज़माना जिया है.....जिस बहन के पास सावन में नैहर से शगुन के पैसे आये हों ,या जिस पिता के पास दूर देश बैठे बेटे का मनी आर्डर ठीक पहली तारीख़ को पहुंचता हो.....वैसे आज भी बहनों को भाइयों से तोहफ़े आते हैं मगर ऑनलाइन शॉपिंग से....याने भाई के कंप्यूटर से एक क्लिक और बहन के दरवाज़े पर एक दस्तक ! बस इतना ही......
याने बदलाव तौर तरीकों में आया अवश्य है पर बेहतरी के लिए....

तकनीकी के क्षेत्र में हुए बदलावों ने तो ज़िन्दगी जीने का अंदाज़ ही बदल कर रख दिया है| स्पेस साइंस और रोबोटिक टेक्नोलॉजी में हुए विकास ने तो जैसे पूरा दृश्य ही परिवर्तित कर दिया है......तूफ़ान के आने से पहले की चेतावनी हो या किसी प्राकृतिक आपदा के बाद के रेस्क्यू ऑपरेशन हों, उन्नत तकनीकों ने जीने की राह आसान कर दी है |
विज्ञान हमारे रोज़मर्रा के जीवन में इस तरह घुस गया है कि इसके बिना एक पल भी जीने की कल्पना नहीं जा सकती | अगर स्त्रियों या गृहणियों के सन्दर्भ में देखा जाय तो इन बदलावों ने उनके जीवन का स्तर ही बदल डाला है....जैसे हमारी नानी दादी पहले लकड़ी जला कर चूल्हे पर खाना पकाती थीं | वाकई क्या स्वाद होता था कल्ले की रोटियों का ! खाने वाले के लिए तो बड़ा सुख था मगर पकाने वालियों का तो सारा दिन बस चूल्हे के सामने ही बीतता था....बिना सर उठाये वे रोटियाँ बेलती जातीं कि ज़रा सा ध्यान बंटा और रोटी जली....आंच को कम ज्यादा करना तक संभव नहीं था.....
चूल्हे के बाद स्टोव और फिर गैस आयी | औरतों की ज़िन्दगी आसान हो गयी | माचिस और लाइटर के बाद अब तो ऑटो इग्निशन कुक टॉप्स आते हैं....याने नॉब घुमाया और गैस चालू.....उसके बाद माइक्रोवेव,इंडक्शन चूल्हे और भी ढेरों उपकरण आये जिन्होंने औरतों को दो घड़ी सुस्ताने का वक्त दिया....अब वे कुछ पल अपने लिए निकालने लगी हैं| घर बैठे रचनात्मक कार्यों में वक्त देने लगीं हैं | ऐसे बदलाव जो सुन्दर कल की ओर ले जाते हों उनका तो ह्रदय से स्वागत होना ही चाहिए......

एक वक्त था जब यात्रा में जाते समय लोग चोर पॉकेट बनवाया करते थे, और डरते सहमते, लुका छुपा कर अपने पैसे ले जाया करते थे फिर ट्रैवलर्स चेक बनाये जाने लगे | तब किसी ने कैश कार्ड्स या क्रेडिट डेबिट कार्ड की कल्पना भी न की होगी | आरम्भ में लोगों ने इसके उपयोग में थोड़ी झिझक महसूस भी की, ई बैंकिंग से भी लोग कतराते रहे पर ये बदलाव नयी पीढ़ी ने स्वेच्छा से और पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनाए और धीरे धीरे अब इनका प्रयोग आम है |   
लकीर के फ़कीर बने रहने में किसी का भला नहीं | शिक्षित लोगों के अलावा आज जो अशिक्षित है या निरक्षर है वे भी बदलावों को खुले दिल से बल्कि बाहें पसार कर स्वीकार कर रहे हैं | किसानों ने अब खेती के पारंपरिक तौर तरीकों को छोड़ कर आधुनिक तकनीकों का वरण किया है| उन्नत बीज, आधुनिक यंत्र और उपकरणों का इस्तेमाल वे खुल कर करते है और इससे उनकी आमदनी बढ़ी है, सोच का स्तर बढ़ा है और वे एक बेहतर जीवन की ओर अग्रसर हुए हैं | परम्परावादी किसान भी अब भाग्य के भरोसे न बैठ कर कृषि के क्षेत्र में आये बदलावों को अपनाने लगा है और अपने लिए बेहतर भविष्य सुरक्षित कर पाया है |
एक बेहतर समाज के लिए हमारे देश में बढ़ती जनसँख्या,बढ़ते प्रदूषण और बढ़ती गंदगी की दिशा में भी जो सार्थक कदम उठाये गए हैं वे एक अच्छे बदलाव का संकेत देते हैं |
सुबह उठ कर अपना आँगन बुहारकर द्वार पर अल्पनायें डालने का रिवाज़ तो हमारे देश में सदियों से हैं मगर आँगन बुहार कर फिर उस कचरे का निस्तारण कहाँ और किस तरह किया जाय इस बात के लिए भी आज लोग जागरूक हैं | बड़ी बड़ी प्रसिद्द हस्तियाँ इस जागरूकता अभियान से जुड़ी हैं | प्लास्टिक की थैलियों के इस्तेमाल पर रोक भी एक बहुत बड़ा और सार्थक बदलाव है और जो समय की मांग भी था |
लोगों की मानसिकता में बदलाव के साथ व्यवहार में खुलापन भी आया है | कई ऐसे विषयों पर अब खुल के बात होने लगी है जो पहले वर्जित थे जैसे जनसँख्या वृद्धि रोकने के उपाय या यौन संबंधी रोगों से बचाव इत्यादि और जिसके बेहद सकारात्मक परिणाम मिले हैं | पाश्चात्य देशों का पहनावा अपनाकर ही आधुनिक हो जाने का ढ़कोसला बहुत हुआ, अब सोच में बदलाव आया है विचारों में आधुनिकता और खुलापन आया है जो एक सुखद संकेत है |

सोच में खुलापन और मानसिक संकीर्णता का कम हो जाना एक बहुत सार्थक बदलाव है जो समाज के भविष्य को निश्चित तौर पर किसी बेहतर और ज्यादा खूबसूरत मकाम की ओर ले जाता है |

जातिवाद कम हुआ है , अब पहले के मुकाबले लोग विजातीय विवाह को सहज रूप से स्वीकारते हैं वरना कुछ दशक पहले ये पारिवारिक विघटन का कारण बनते थे | वैचारिक कट्टरता कम हुई है इसलिए उदारता बढ़ी है और दो जाति या धर्मों के लोगों का आपस में तालमेल आसान हुआ है | प्रेम विवाह को सहज स्वीकृतियां मिलने लगी हैं....अब माँ बाप इस बात को मुद्दा नहीं बनाते कि बेटे या बेटी ने अपनी मर्ज़ी से जीवनसाथी चुन लिया है और इसी वजह से दहेजप्रथा भी कुछ हद तक सिमट गयी है , समाप्त अब भी नहीं हुई है मगर एक शुरुआत तो है....एक शुभ शुरुआत |
जैसे जैसे समाज में बदलाव आते हैं वैसे वैसे उसकी संस्कृति और अभिव्यक्ति में बदलाव आता है | पिछले कुछ दशकों से पाश्चात्य संस्कृति ने हमारे जीवन में, हमारी विचार धाराओं में भारी घुसपैठ की है, जिसका परिणाम यदि कुछ नकारात्मक रहा तो बहुत कुछ सकारात्मक भी रहा है |   
उदहारण के लिए पिछले कुछ सालों से हम सभी भारतीय वैलेंटाइन डे पूरे जोर शोर से मनाने लगे है | वैलेंटाइन डे याने प्रेम की अभिव्यक्ति का दिन | कुछ संकीर्ण मानसिकता वालों ने और कुछ कट्टरपंथियों ने इसका विरोध किया,कुछ ने इसे बाज़ारवाद क़रार दिया मगर प्रेम ने कब सुनी है किसी की....इस दिन बाज़ार में जी भर के गुलाबों की बिक्री होती है ,गुलाबी रंगों वाले ग्रीटिंग कार्ड बिकते हैं और खुल्लमखुल्ला प्रेम का इज़हार होता है.......
इस बदलाव में एक गौर फरमाने लायक बात ये रही कि इस त्यौहार को सिर्फ युवाओं ने नहीं मध्यम आयुवर्ग के जोड़ों ने भी पूरे जोश से मनाया.....याने ब्याह के 25 बरस बाद भी जिसने अपने साथी से प्रेम का शब्दों में इज़हार न किया हो उसने भी खुल कर आय लव यू कह दिया | तो क्यूँ न ऐसे बदलावों का स्वागत किया जाय और उन्हें बाहें पसार कर पूरे मन से औदार्य भाव से अपनाया जाय | अगर ज़िन्दगी किसी खूबसूरत दृश्य के लिए करवट बदलती है तो अच्छा ही है |
भौगोलिक परिस्थियाँ और जलवायु भी किसी क्षेत्र विशेष की संस्कृति को निर्धारित करती हैं और इनमें आये बदलाव संस्कृति के विकास पर असर डालते हैं | आज यातायात और संचार के साधनों में असाधारण उन्नति हुई है जिसकी वजह से विभिन्न क्षेत्रों की संस्कृतियाँ आपस में मिलजुल गयीं हैं | एक प्रदेश में पहने जाने वाले कपड़े, खाए जाने वाले व्यंजन और मनाये जाने वाले त्यौहार अब दूसरे प्रदेशों की संस्कृति का भी हिस्सा बन चुके हैं | ये बदलाव समाज को उदार बनाता है और उन्मुक्त विचारधारा का संकेत देता है |  
बदलाव सदैव चुनौती के साथ आते हैं, यदि आपके भीतर भविष्य की ओर कदम बढ़ाने का जज़्बा है तो आप बदलावों को साहस के साथ सहर्ष स्वीकारेंगे वरना घोंघा बसंत बनकर ही रह जाना होगा | बदलाव को स्वीकारने पर ही मनुष्य अपने वर्तमान स्वरुप में आया है और यदि आगे भी बदलावों को नहीं स्वीकार गया तो हम उलट दिशा में चल कर संभवतः फिर चौपाये बन जायेंगे | बदलाव भविष्य की ओर बढ़ता एक सुदृढ़ और सार्थक कदम है.....इसकी ताल से ताल मिलकर चलते हुए ही हम सुनहरे विहान की ओर अग्रसर होंगे |
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अनुलता राज नायर
भोपाल



नए पुराने मौसम

मौसम अपने संक्रमण काल में है|धीरे धीरे बादलों में पानी जमा हो रहा है पर बरसने को तैयार नहीं...शायद उनकी आसमान से यारी छूट नहीं रही ! मोह...