इन्होने पढ़ा है मेरा जीवन...सो अब उसका हिस्सा हैं........

Saturday, December 28, 2013

"विदा 2013" एक नज़्म.........


दिसम्बर के आते ही
सुनाई देने लगती है नए साल की दस्तक
जो तेज़ होती जाती है हर दिन
मानों आगंतुक अधीर हो उठा हो !

मेरा मन भी अधीर हो उठता है
जाते वर्ष की रूंधी आवाज़ और सीली पलकें देख....
बिसरा दिए जाने का दुःख खूब जानती हूँ मैं |

तसल्ली दी मैंने बीते साल को कि
वो रहेगा सदा मेरी स्मृतियों में !
सो जमा कर रही हूँ एक संदूक में
बीते वर्ष की हर बात
जिसने मुझे सहलाया/रुलाया/बहकाया/सिखाया...
...

संदूक में सबसे नीचे रखीं मैंने
अधूरे स्वप्नों की टीस,अनकही बातों की कसक
और कहे - सुने कसैले शब्द !
भटकनों को दबा रही हूँ तली में, अखबार के नीचे......

फिर रखे खट्टे मीठे ,इमली के बूटों जैसे दिन.....
कि उन्हें देख कभी मुस्कुराऊँगी,सीली आँखों से !

इसके ऊपर रखे मैंने मोरपंखी दिन
साथ में तुम्हारी हंसी,होशियारी और मेरा प्रेम |

सबसे ऊपर रखूँगी मेरी डायरी का पन्ना
जिस पर लिखा होगा
विदा
तुमसे ही सुना था ये शब्द......
विदा !!!!
-अनुलता -

Monday, December 2, 2013

तुम्हारे और मेरे बीच......

तुम्हारे और मेरे बीच अगर कुछ होगा
तो वो सिर्फ प्रेम होगा

हमारी हथेलियों पर
हर पल अंकुरित होता प्रेम
स्पर्श की ऊष्मा से....

और हमारे इर्द गिर्द फ़ैली हों
बेचैनियाँ,
हमें एक दूसरे की ओर धकेलती हुई !

किसी और को
करीब आने की नहीं होगी इजाज़त
बस एक दो जुगनू और कुछ तितलियाँ
सच मानो
बड़ी ज़िद्द की है उन्होंने....

हाँ! एक महीन अदृश्य पर्दा होगा
तुम्हारे और मेरे बीच,
कि छिपे रहें मेरे गम
कि तुम्हारी खुशियों को नज़र न लगे उनकी |

तो फिर ये तय हुआ कि
हमारे बीच अगर कुछ होगा
तो वो सिर्फ प्रेम होगा
या होगा एक पागलपन
या फिर दर्द
प्रेम के न होने का !
(तुमने क्या तय किया कहो न ?? )

~अनुलता ~

Tuesday, November 26, 2013

स्वेटर

आँखें खाली
ज़हन उलझा
ठिठुरते रिश्ते  
मन उदास....
सही वक्त है कि उम्मीद की सिलाइयों पर
नर्म गुलाबी ऊन से एक ख्वाब बुना जाय !!

माज़ी के किसी सर्द कोने में कोई न कोई बात,
कोई न कोई याद ज़रूर छिपी होगी
जिसमें ख़्वाबों की बुनाई की विधि होगी,
कितने फंदे ,कब सीधे, कब उलटे......

बुने जाने पर पहनूँगी उस ख्वाब को
कभी तुम भी पहन लेना..
कि ख़्वाबों का माप तो हर मन के लिए
एक सा होता है |
कि उसकी गर्माहट पर हक़ तुम्हारा भी है.....

~अनुलता~

Tuesday, November 19, 2013

सज़ाएं कभी ख़त्म नहीं होतीं.............किये, अनकिये अपराधों की सदायें जब तब कुरेद डालती हैं भरते घावों की पपड़ियों को |
वक्त ज़ख्मों को भरता है...नासूर रिसते हैं ताउम्र.......

जो गलतियाँ हम करते हैं उसके लिए खुद को कभी माफ़ नहीं कर पाते हैं और अपने ही नाखूनों  से अपना अंतर्मन खुरचते रहते हैं .शायद अपने लिए यही सजा मुक़र्रर कर लेते हैं |
और अनकिये अपराधों की सज़ा तो दोहरी होती है | बेबसी की यातनाएं सहता लहुलुहान मन बस एक काल्पनिक अदालत में खड़ा चीखता रह जाता है और उनकी दलीलें टकरा-टकरा कर वापस उसी पर प्रहार करती रहती  हैं | 
कभी हम खुद को कोसते हैं कभी कोई यूँ ही आता जाता हमारे ज़ख्मों के सूखे  दरवाजों पर दस्तक देता निकल जाता हैं...बस यूँ ही !!
तारीखें बदलती हैं ....वक्त के साथ सब कुछ घटता जाता है ,सिर्फ अपराध वहीं के वहीं रह जाते हैं ,उतने ही संगीन |
सज़ाएँ पूरी करके भी अपराधी रहता अपराधी ही है |और उसे जीना होता इन  बेचैनियों का बोझ ढोते हुए |
किसी निरपराधी को सज़ा मिले तो मौत ही मिले , कि आत्मा के घुटने  से सांस का घुट जाना बेहतर है....

~अनु ~

[कुछ ख़याल यूँ ही आते हैं ज़हन में......और उन्हें कह देना सुकून देता है....बस थोडा सा आराम बेचैनियों को....]

Thursday, November 14, 2013

दुखों के बीज

आस पास कुछ नया नहीं....
सब वही पुराना,
लोग पुराने
रोग  पुराने
रिश्ते नाते और उनसे जन्में शोक पुराने |
नित नए सृजन करने वाली धरती को
जाने क्या हुआ ?
कुछ नए दुखों के बीज डाले थे कभी
अब तक अन्खुआये नहीं
दुखों के कुछ वृक्ष होते तो
जड़ों से बांधे रहते मुझे/तुम्हें /हमारे प्रेम को....
सुखों की बाढ़ में बहकर
अलग अलग किनारे आ लगे हैं हम |
~अनुलता ~




Monday, October 28, 2013

स्मृतियाँ

मेरी इस कविता को सुन्दर स्वर दिए हैं दीपक सिंह जी ने ...आप भी सुनिए..सराहिये......
https://soundcloud.com/topgundeepak/smritiyaan

तुम्हारी स्मृतियाँ पल रही हैं 
मेरे मन  की
घनी अमराई में |
कुछ उम्मीद भरी बातें अक्सर 
झाँकने लगतीं है
जैसे
बूढ़े पीपल की कोटर से झांकते हों
काली कोयल के बच्चे !!

इन स्मृतियाँ ने यात्रा की है
नंगे पांव
मौसम दर मौसम 
सूखे से सावन तक 
बचपन से यौवन तक |

और कुछ स्मृतियाँ तुम्हारी 
छिपी हैं कहीं भीतर
और आपस में स्नेहिल संवाद करती हैं,
जैसे हम छिपते थे दरख्तों के पीछे
अपने सपनों की अदला बदली करने को |

तुम नहीं 
पर स्मृतियाँ अब भी मेरे साथ हैं 
वे नहीं गयीं तेरे साथ शहर !!

मुझे स्मरण है अब भी तेरी हर बात,
तेरा प्रेम,तेरी हंसी,तेरी ठिठोली
और जामुन के बहाने से,
खिलाई थी तूने जो निम्बोली !!

अब तक जुबां पर
जस का तस रक्खा है
वो कड़वा  स्वाद 
अतीत की स्मृतियों का !!

-अनुलता-

Thursday, October 24, 2013

इंदिरा -आधी आबादी पत्रिका में प्रकाशित मेरा आलेख.

लेख लिखना न मेरे बस का था न शौक में शामिल था ....एक प्रतिष्ठित पत्रिका "आधी आबादी " के लिए पहली बार लेख लिखा "अमृता प्रीतम "पर | भरपूर सराहना मिलने पर अब "आधी आबादी" के लिए हर माह एक आलेख लिख रही हूँ और लिखते लिखते खुद से सीख रही हूँ |
राजनीति और नेता कभी मेरी पसंद नहीं रहे मगर फिर भी पत्रिका की मांग पर अक्टूबर अंक के लिए इंदिरा गाँधी  पर लिखा | वे इकलौती राजनेता थीं जिनके व्यक्तित्व ने मुझे प्रभावित किया था | 
आशा है आलेख आपको पसंद आएगा -


इंदिरा प्रियदर्शिनी
(19 नवम्बर 1917- 31अक्टूबर 1984)

छोटी सी थी मैं,कोई 14-15 बरस की जब अपने पिता की उँगलियाँ थामे भोपाल शहर की एक सुन्दर सड़क के किनारे खड़ी इंदिरा जी की रैली का इंतज़ार कर रही थी. खुली जीप में , पीली साड़ी में हाथ हिलाती उस गरिमामयी छवि ने मेरे मन में तब से ही घर कर लिया था. उन्होंने अमलतास के फूलों का एक गुच्छा मेरी ओर फेंका, एक पल को उनकी नज़र मुझ पर भी पड़ी थी. बस तब से इंदिरा गाँधी कई और लाखों लोगों की तरह मेरी भी पसंदीदा राजनेत्री बन गयीं.
बेहद आकर्षक और चुम्बकीय व्यक्तित्व की स्वामिनी इंदिरा जी को मैंने पहली बार जाना उनके पिता श्री जवाहल लाल नेहरु के द्वारा लिखे पत्रों के संकलन से, जो मेरे पिताजी ने मुझे एक पुस्तक के रूप में उपहार स्वरुप दिए थे. ये पत्र नेहरु जी ने इंदिरा को 1928 में लिखे थे जब वे मसूरी में पढ़ रही थीं और सिर्फ 10-11 वर्ष की थीं. इन पत्रों को उनके पिता ने  दूरी की वजह से उपजी संवादहीनता की स्थिति से बचने के लिए लिखा था, जिनमें उन्होंने उन सभी प्रश्नों के उत्तर  लिखे जो एक बालसुलभ मन में पैदा होते होंगे. उन्होंने पत्रों के माध्यम से पृथ्वी के बनने से लेकर सभ्यताओं और संस्कृतियों के विषय में भी समझाया. ज्ञान और समझदारी का पहला पाठ इंदिरा को इन पत्रों से मिला. नींव सुदृढ़ हो तो इमारत का बुलंद होना स्वाभाविक है.
नेहरु परिवार में सबसे बड़ा बदलाव आया जब १९१९ में महात्मा गाँधी साउथ अफीका से लौटने के बाद उनसे मिले और जिनके प्रभाव में आकर इंदिरा के माता पिता,पंडित जवाहर लाल नेहरु और कमला नेहरु स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़े. इंदिरा अपने दादा मोतीलाल नेहरु के बेहद करीब थीं पर फिर भी माता पिता के जेल जाने और लगातार अनुपस्थिति ने छोटी उम्र में ही उन्हें गंभीर बना दिया और एक परिपक्व सोच दी. बचपन में उनके खेल भी ब्रिटिश सेना को मार भगाने जैसे विषयों को लेकर होते. मात्र 11 बरस में उन्होंने वानर सेना बनायी जो रामायण के पात्र हनुमान और लंका दहन के लिए बनाई उनकी वानर सेना से प्रेरित थी. वे 13 बरस की थीं जब में अपने स्कूल में उन्होंने कहा “गाँधी जी सदा से मेरे जीवन का हिस्सा हैं”. बचपन से ही उनमें स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने की ललक और जज़्बा था,एक किस्सा बार बार पढने में आता है कि उन्हीं दिनों अपने पिता के पास से किसी क्रांतिकारी मिशन के बेहद गोपनीय दस्तावेज उन्होंने ब्रिटिश पुलिस की नज़र से बचाकर निकाले थे.माँ की मृत्यु के बाद वे पढने इंग्लैंड चली गयी, और 1930  के दशक के अन्तिम चरण में ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय, इंग्लैंड के समरविल्ले कॉलेज में अपनी पढ़ाई के दौरान वे लन्दन में आधारित स्वतंत्रता के प्रति कट्टर समर्थक भारतीय लीग की सदस्य बनीं।
1934-35  में अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के पश्चात, इन्दिरा ने शान्तिनिकेतन में रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा निर्मित विश्व-भारती विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। जहाँ गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ही इन्हे "प्रियदर्शिनी" नाम दिया .
महाद्वीप यूरोप और ब्रिटेन में रहते समय उनकी मुलाक़ात एक
पारसी कांग्रेस कार्यकर्ता, फिरोज़ गाँधी से हुई जिनसे 16 मार्च 1942 को आनंद भवन इलाहाबाद में एक सादे समारोह में उनका  विवाह हुआ और इसके ठीक बाद वे भारत छोड़ो आन्दोलन से जुडीं और कांग्रेस पार्टी द्वारा पुरजोर राष्ट्रीय विद्रोह की शुरुआत की गयी। सितम्बर 1942 में वे ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा गिरफ्तार की गयीं और बिना कोई आरोप के हिरासत में डाल दी गयीं.अंततः 243 दिनों से अधिक जेल में बिताने के बाद उन्हें १३ मई 1943 को रिहा किया गया।
1944 में राजीव गांधी और इसके दो साल के बाद संजय गाँधी का जन्म हुआ.
सन् 1947 के भारत विभाजन अराजकता के दौरान उन्होंने शरणार्थी शिविरों को संगठित करने तथा पाकिस्तान से आये लाखों शरणार्थियों के लिए चिकित्सा सम्बन्धी देखभाल प्रदान करने में मदद की। उनके लिए प्रमुख सार्वजनिक सेवा का यह पहला मौका था।
उन्होंने कहीं लिखा है- मेरे  दादा जी  ने  एक  बार  मुझसे  कहा  था  कि  दुनिया  में  दो  तरह  के  लोग  होते  हैं एक वो  जो  काम  करते  हैं  और दूसरे वो  जो  श्रेय  लेते  हैं ,उन्होंने  मुझसे  कहा  था  कि  पहले  समूह  में  रहने  की  कोशिश  करो , वहां  बहुत  कम  प्रतिस्पर्धा  है.”
नेहरु जी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद इंदिरा जी उनके साथ दिल्ली आ गयी और उनकी निजी सचिव,नर्स,राजनैतिक सलाहकार और स्नेहिल बेटी के किरदारों को निभाने में जुट गयीं.तब से ही उनके और फ़िरोज़ गाँधी के बीच दूरियाँ पनपीं.
इंदिरा जी के औपचारिक राजनैतिक जीवन की शुरुआत तब हुई जब 1959 और 1960 के दौरान वे  भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं। हालांकि उनका कार्यकाल घटनाविहीन था। वो सिर्फ अपने पिता के कर्मचारियों के प्रमुख की भूमिका निभा रहीं थीं।
27 मई 1964  को नेहरू जी के देहांत के बाद इंदिरा राज्यसभा की सदस्य चुनीं गयीं और सूचना और प्रसारण मंत्री के लिए नियुक्त हो, लाल बहादुर शास्त्री जी की सरकार में शामिल हुईं ,उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा.
सन् 1966  में जब श्रीमती गांधी प्रधानमंत्री बनीं, कांग्रेस दो गुटों में विभाजित हो चुकी थी - श्रीमती गांधी के नेतृत्व में समाजवादी और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में रूढीवादी। 1967  के चुनाव में कई आंतरिक समस्याएँ उभरी जहां कांग्रेस लगभग 60 सीटें खोकर 545 सीटोंवाली लोक सभा में 297 आसन प्राप्त किए। मजबूरन उन्हें मोरारजी भाई को भारत के भारत के उप प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री के रूप में लेना पड़ा। 1969 में देसाई के साथ अनेक मुददों पर असहमति के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस विभाजित हो गयी। उन्होंने समाजवादियों एवं साम्यवादी दलों से समर्थन पाकर अगले दो वर्षों तक शासन चलाई। उसी वर्ष उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयीकरण किया.
1971 में उन्होंने पकिस्तान की भीतरी लड़ाई में हस्तक्षेप किया और बांग्लादेश का निर्माण हुआ,शेख़ मुजीबुर्रहमान प्रधानमन्त्री बनाये गए.यहाँ अमेरिका ने पकिस्तान की मदद की और सोवियत संघ ने भारत की. ये इंदिरा जी की बहुत बड़ी राजनैतिक  सफलता थी. उनकी इस सक्रिय भूमिका से वह पूरी दुनिया में दृढ़ इरादों वाली महिला के रूप में जानी जाने लगीं और अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें दुर्गा की संज्ञा दी।
1974 में “स्माइलिंग बुद्धा” नामक सीक्रेट मिशन के तहत अपने साहसिक फैसलों के लिए मशहूर इंदिरा गांधी ने 1974 में पोखरण में परमाणु विस्फोट कर जहां चीन की सैन्य शक्ति को चुनौती दी, वहीं अमेरिका जैसे देशों की नाराजगी की कोई परवाह नहीं की।
इसी तरह 1975 में सिक्किम का भारत में विलय भी एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी,हालांकि चीन ने इसे एक घिनौना कार्य बताया.
इंदिरा कहती थीं : कुछ  करने  में  पूर्वाग्रह  है - चलिए  अभी  कुछ  होते  हुए  देखते  हैं .  आप  उस  बड़ी  योजना  को  छोटे -छोटे  चरणों  में  बाँट  सकते  हैं  और  पहला  कदम  तुरंत  ही  उठा  सकते  हैं .
रजवाड़ों का प्रीवीपर्स समाप्त करना भी उनकी एक बहुत बड़ी राजनैतिक उपलब्धि थी.
1975 का साल इंदिरा जी के राजनैतिक जीवन में एक धब्बा सा लगा गया. उन दिनों विरोधी दलों और सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय संस्थानों ने इंदिरा सरकार की तीव्र आलोचना और विरोध शुरू किया.उन पर आर्थिक मंदी,मुद्रास्फीति और भ्रष्टाचार जैसे आरोप लगाए जाने लगे.और तभी इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 1971 चुनाव में धांधली की बात भी उजागर की और उन्हें पद त्याग का आदेश हुआ. जिससे राजनैतिक माहौल गरम हो गया और 26 जून, 1975 को इंदिरा गाँधी ने आपातकाल लागू कर दिया. आपात स्थिति के दौरान उन्होंने अपने राजनीतिक दुश्मनों के साथ सख्ती बरती, संवैधानिक अधिकारों को निराकृत किया गया कई राजनेता जेल में भर दिए गए और प्रेस की आज़ादी छीन कर उन्हें सख्त सेंसरशिप के अंतर्गत रखा गया. इसी दौरान पांचवी “पञ्च वर्षीय योजना” और “बीस सूत्रीय कार्यक्रम” भी लागू किये गए,जिसमें गरीबी हटाओ योजना पर प्रमुखता से काम किया जाना तय हुआ.
इसके बाद 1977 में छटवें लोकसभा चुनाव में इंदिरा गाँधी की पार्टी को जनता पार्टी के द्वारा करारी मात का सामना करना पड़ा यहाँ तक उनकी और संजय गाँधी की सीट भी जाती रही. 24 मार्च 1977 को मोरारजी देसाई देश के नए प्रधानमन्त्री बने.
शायद ये इंदिरा का भाग्य ही था जो जनता दल एकजुट होकर काम न कर सका वहां आतंरिक सिर फुटव्वल होती रही नतीजतन लोक सभा भंग हुई और 1980 में फिर चुनाव हुआ और इंदिरा गाँधी अपनी पार्टी के साथ फिर सत्ता में आयीं. इंदिरा जी की कही एक पंक्ति यहाँ याद आती है- आपको  गतिविधि  के  समय  स्थिर  रहना  और  विश्राम  के  समय  क्रियाशील  रहना  सीख  लेना  चाहिए” .
ये भारत के इतिहास में सबसे अधिक मंदी का दौर था.इंदिरा गाँधी ने जनता पार्टी सरकार की पंचवर्षीय योजना को रद्द किया और छटवी पंचवर्षीय योजना का आगाज़ हुआ.
इंदिरा अपार क्षमता और विलक्षण शक्ति का संचार करने वाली महिला थीं. उन्हें भारत की “आयरन लेडी” कहा गया उनकी प्रतिभा का गुणगान विरोधी भी किया करते थे.जयप्रकाश नारायण,हेमवती नंदन बहुगुणा,राजनारायण,मधु लिमये और वाय.बी.चौहान उनकी खुले आम प्रशंसा करते थे.
गुटनिरपेक्ष सम्मलेन और कॉमन वेल्थ का आयोजन कर उन्होंने भारत को विश्व मानचित्र में एक अलग पहचान दी.
ऑपेरशन ब्लू स्टार जैसा साहसी कदम इंदिरा जैसी बुलंद इरादे वाली लौह महिला ही उठा सकती थीं हालांकि इसका खामियाजा उन्हें अपनी जान देकर भरना पड़ा,मगर उन्हें मौत का डर था ही कब?
उन्होंने अपने आख़री भाषण में कहा था - यदि  मैं  इस  देश  की  सेवा  करते  हुए  मर  भी  जाऊं , मुझे  इसका  गर्व  होगा . मेरे  खून  की  हर एक  बूँद  …..इस  देश  की  तरक्की  में  और इसे   मजबूत  और  गतिशील  बनाने  में  योगदान  देगी .संभवतः उन्हें आभास था अपनी मौत का.
इंदिरा को उनके सलाहकारों ने अपने अंगरक्षक बदलने की सलाह भी दी थी मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया. जातिगत भेदभाव करना उन्हें पसंद नहीं था.उन्हें लोग सचेत करते रहे परन्तु जवाब में उन्होंने कहा - अगर  मैं  एक  हिंसक  मौत  मरती  हूँ , जैसा  कि  कुछ  लोग  डर  रहे   हैं  और  कुछ  षड्यंत्र   कर  रहे  हैं , मुझे  पता  है  कि हिंसा  हत्यारों  के  विचार  और  कर्म  में  होगी , मेरे  मरने  में  नहीं .....
“भारतरत्न इंदिरा प्रियदर्शिनी” ने राजनीति जैसे क्षेत्र में होते हुए भी आम जनता का भरपूर सम्मान और स्नेह पाया और इसका श्रेय उनके शानदार व्यक्तिव और सहज व्यवहार और प्रगतिशील विचारधारा  को जाता है.
वे हर आम और ख़ास से पूरी आत्मीयता और खुले दिल से मिलतीं, अपना हाथ आगे बढाती. फिर उनकी कही बात दुहराती हूँ-  कि आप  बंद  मुट्ठी  से  हाथ  नहीं  मिला  सकते .
इंदिरागांधी जैसा निर्भीक और प्रगतिशील व्यक्तित्व देश के राजनैतिक रंगमंच पर निस्संदेह अब तक नहीं आया है.वे हिमालय सी दृढ़ और समुद्र सी गहरी और गंभीर थीं. इंदिरा जी के सन्दर्भ में खुशवंत सिंह की कही बात से पूर्णतया सहमत हूँ – कि इंदिरा एक ऐसी शख्सियत थीं जिनसे मोहब्बत की जा सके, जिसकी प्रशंसा की जाय और जिनसे डरा जाय.....
-अनुलता राज नायर-



Wednesday, October 9, 2013

शक्ति हो तुम !

दैनिक भास्कर -मधुरिमा- में प्रकाशित मेरी कवर स्टोरी 9 अक्टूबर 2013
 http://epaper.bhaskar.com/magazine/madhurima/213/09102013/mpcg/1/


पौराणिक और प्रागैतिहासिक काल से आरम्भ करते हुए यदि आज तक स्त्रियों के विषय में विचार करें तो सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा से लेकर, वैदिक काल की अपाला,घोषा, सावित्री और सूर्या जैसी ऋषिकायें, उपनिषद काल की गार्गी और मैत्रेयी जैसी विदुषियाँ , मध्यकाल और पूर्व-आधुनिक काल की अहिल्या बाई, रज़िया सुल्तान, लक्ष्मी बाई और चाँद बीबी जैसी शासक सम्पूर्ण नारी शक्ति को बेहद सुन्दर और सशक्त रूप से परिभाषित करती हैं |
फिर इतने गौरवान्वित इतिहास वाली नारी उन्नीसवीं सदी के आते आते इतनी अधिकारविहीन और निर्भर कैसे हो गयी ? आखिर नारीवाद के तहत नारियों के उत्थान की आवश्यकता हुई क्यूँ ?
“शक्ति रूपी” दुर्गा याने दुर्ग, अर्थात अभेद्य | जो सुरक्षित है जो शक्तिशाली है, ईश्वरीय है, श्रेष्ठ है और  जो माँ है | दुर्गा शिव की ऊर्जा हैं उनकी अभिव्यंजना हैं | शिव स्थिर और अपरिवर्तनीय हैं , ब्रह्माण्ड की प्रक्रियाओं से अप्रभावित हैं,इसलिए दुर्गा ही कर्ता हैं जो मानवजाति की पाप और विपत्तियों से रक्षा करती हैं और उन्हें क्रोध, पाप, घृणा, अहं लोभ और अहंकार से बचाती है | दुर्गा केवल ईश्वरीय शक्ति नहीं है बल्कि उन्होंने सृष्टि की रक्षा के लिए देवों की सम्पूर्ण शक्ति को ग्रहण किया | 
पार्वती के तन से मुक्त होकर दुर्गा शक्ति बनीं और शुम्भ निशुम्भ का नाश किया | दुर्गा ने “काली” का सृजन किया रक्तबीज के संहार के लिए | आज जब सैकड़ों रक्तबीज फैले हैं तो नारी के भीतर भी तो काली का वास है ! काली की शक्ति ने समूचा ब्रह्माण्ड दहला दिया था तब उनके क्रोध को शांत करने के लिए स्वयं शिव उनके पैरों तले आये | आधुनिक समाज ने जाने अनजाने स्त्रियों को सिखाया अपनी क्षमताओं अपनी शक्तियों को कम आंकना | स्त्रियाँ जूझती रही हैं अपनी स्त्रियोचित समस्याओं से, फिर वे चाहे कामकाजी हों,श्रमिक हों या घरेलू हों और भूलती गयीं कि उनके भीतर शक्ति का वास है, वे जननी हैं,सृष्टिकर्ता हैं |

वास्तव में हर स्त्री के भीतर अलौकिक दृष्टि होती है किसी भी रूप में छिपे राक्षस को पहचान पाने की,बस उसे पहचानना है स्वयं अपने भीतर छिपी इस शक्ति को |
  दुर्गा की तरह स्त्री में भी देवों सी शक्ति है,ऋषियों सा धैर्य और ज्ञान है | वो आलोकित करती है चारों दिशाओं को, मगर उसे ख़याल रखना होगा कि दीप तले अँधेरा न होने पाए | वो स्वाभिमानी हो अभिमानी नहीं | अंधविश्वासों और रूढ़ियों को तोड़ने का साहस करे | शिक्षित और सुसंस्कृत समाज की नींव का पत्थर बन नारी आज अपने भविष्य की इमारत को स्वयं सुदृढ़ कर सकती है |

राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त जी ने कहा भी है-
     "एक नहीं, दो-दो मात्राएँ, नर से बढ़कर नारी"......|       


- अनुलता राज नायर -

Thursday, October 3, 2013

सिंदूर

किसी ढलती शाम को
सूरज की एक किरण खींच कर
मांग में रख देने भर से
पुरुष पा जाता है स्त्री पर सम्पूर्ण अधिकार |
पसीने के साथ बह आता है सिंदूरी रंग स्त्री की आँखों तक
और तुम्हें लगता है वो दृष्टिहीन हो गयी |
मांग का टीका गर्व से धारण कर
वो ढँक लेती है अपने माथे की लकीरें
हरी लाल चूड़ियों से कलाई को भरने वाली  स्त्रियाँ
इन्हें हथकड़ी नहीं समझतीं ,
बल्कि इसकी खनक के आगे
अनसुना कर देती हैं अपने भीतर की हर आवाज़ को....
वे उतार नहीं फेंकती
तलुओं पर चुभते बिछुए ,
भागते पैरों पर
पहन लेती हैं घुंघरु वाली मोटी पायलें
वो नहीं देती किसी को अधिकार
इन्हें बेड़ियाँ कहने का |

यूँ ही करती हैं ये स्त्रियाँ
अपने समर्पण का ,अपने प्रेम का,अपने जूनून  का
उन्मुक्त प्रदर्शन !!

प्रेम की कोई तय परिभाषा नहीं होती |

-अनुलता-


Friday, September 27, 2013

आसमान था उस माँ का आँचल....

मदर टेरेसा

(आधी आबादी पत्रिका के सितम्बर अंक में प्रकाशित मेरा आलेख)


ईश्वर हर जगह नहीं हो सकता इसलिए उसने माँ बनायी...लाखों लोगों को अपने स्नेहिल स्पर्श से मुस्कराहट बांटने वाली माँ,”मदर टेरेसाको कौन नहीं जानता, और कौन नहीं चाहता !
मनुष्यत्व का प्रतिनिधित्व करने वाली मदर टेरसा ने अपने प्रेम और सेवा भाव के उजाले से पूरे विश्व को आलोकित किया. दीनदुखियों की सेवा को ईश्वर की उपासना समझने वाली इस पवित्र आत्मा ने अपना पूरा जीवन सेवा को समर्पित किया.मदर टेरेसा सच्चे अर्थों में माँ थीं.
२६ अगस्त १९१० को स्कोप्ज़े,मेसेडोनिया में जन्मी मदर टेरेसा का वास्तविक नाम एग्नेस गोंक्ज्हा बोयाझियु था.अपने पिता की आकस्मिक मृत्यु के पश्चात वे अपनी माँ के बेहद करीब आयीं और माँ के धार्मिक संस्कारों की वजह से उनमें सेवाभाव पनपने लगा और वे सांसारिक सुखों से विमुख होने लगीं.
12 वर्ष की उम्र में एक चर्च के रास्ते में उन्हें ईश्वर के बुलावेका एहसास हुआ और फिर १८ साल की उम्र में वे आयरलैंड गयीं जहाँ उन्होंने संन्यास लिया और नन बन गयीं.उन्हें नया नाम मिला-सिस्टर मैरी टेरेसा”. इतनी छोटी उम्र से ही उनका धर्म और समाज कल्याण की ओर बेहद रुझान रहा.उनका कहना था अगर आप सौ लोगों को नहीं खिला सकते तो एक को खिलाइए. किसी भी अच्छे काम को करने के लिए किसी नेतृत्व का इंतज़ार न करें...खुद ही चल पड़ें.यही उन्होंने खुद भी किया. जिस समाज सेवा का कार्य उन्होंने स्वयं अकेले आरम्भ किया उस “मिशनरीज ऑफ चेरिटीसे बाद में ४००० नन्स जुडीं जो अनाथालयों , एड्स आश्रम ,शरणार्थियों, अन्धे, विकलांग, वृद्ध, शराबियों , गरीबों और बेघर , और बाढ़, महामारी, और अकाल पीड़ितों के देखभाल के लिए कार्य कर रही हैं.

मदर टेरेसा के ह्रदय में करुणा और प्रेम का विशाल सागर था.वे कहती थीं कपड़े,भोजन और घर का अभाव ही गरीबी नहीं है,सबसे बड़ी गरीबी है प्रेम का न होना,उपेक्षित होना,अनचाहा होना,लोगों के द्वारा भुला दिया जाना.
मई 1931 में मदर टेरेसा ने दीक्षा ली और औपचारिक रूप से नन बनीं.फिर वे भारत आईं और कलकत्ता में लोरेटो सिस्टर्स द्वारा चलाये जाने वाले स्कूल में पढ़ाने लगीं जहाँ उन्होंने कलकत्ता की गरीब बच्चियों को पढ़ाने का जिम्मा लिया. 24 मई 1937 को उन्होंने स्वयं को पूर्ण रूप से मानव सेवा के लिए समर्पित किया और संन्यास ग्रहण कर शुद्धता,सादगी और सेवा की शपथ ली.अब उन्हें लोरेटो नन्स की और से मदरकी उपाधी दी गयी. उन्होंने अपना अध्यापन का कार्य जारी रखा पर 10 सितम्बर 1946 जब वे हिमालय की ओर रेल यात्रा कर रही थीं तब उन्होंने फिर एक बार ईश्वर की पुकारसुनी जिसमें उन्हें गरीब बीमार बच्चों और बूढों की सेवा में लग जाने का आदेश मिला था...भला ईश्वर का आदेश कौन टाल सकता है. उन्होंने 6 महीने बाकायदा नर्सिंग की ट्रेनिंग ली और जुट गयीं सेवा में, फिर कभी कदम पीछे नहीं हटाये.
उन्होंने पूरे विश्व को अपना परिवार समझा और पूरी निष्ठा से सेवा की.
अयं निज
: परो वेति गणना लघुचेतसाम् |
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ||

अर्थात वो मेरा है,वो पराया है ऐसा भेद संकीर्ण सोच वाले ही करते हैं,जो महान हैं ,उदार हैं उनके लिए पूरा विश्व एक सामान है.
मदर टेरेसा की भीतर जन कल्याण की एक छटपटाहट थी.उन्होंने कलकत्ता में गरीब बच्चों के लिए स्कूल खोला और निर्मल ह्रदयनामक एक धर्मशाला का निर्माण किया.यहाँ बेघर बीमार बच्चों और वृद्धों को आश्रय मिला, यहाँ उनका निशुल्क और अच्छी तरह उपचार भी किया जाता.उन्हें प्रेम और सुरक्षा की भावना दी जाती.
मदर लोगों को सेवा के लिए प्रेरित करतीं,वे कहती कि हो सकता है तुम्हारा योगदान समंदर में एक बूँद के बराबर ही हो मगर उसके न होने से समंदर में वो एक बूँद कम तो है न. उनकी लगन और निस्वार्थ सेवा देख बहुत लोग आगे आये और उनसे जुड़ते चले गए. 1950 में उन्होंने मिशनरीज ऑफ़ चैरिटीकी स्थापना की और फिर नीली किनारी वाली सफ़ेद साड़ी उनकी पहचान बनी.
परन्तु मदर टेरेसा को उनके बाहरी पहनावे से नहीं बल्कि उनके भीतर की सुन्दरता की वजह से पहचाना और पूजा गया. मगर समाजकल्याण की दिशा में उनकी राह आसां नहीं थी उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है- कि उनका पहला साल कठिनाइयों से भरपूर था उनके पास कोई आमदनी नही थी. भोजन और आपूर्ति के लिए भिक्षावृत्ति भी की ,इन शुरूआती महीनो में मैंने संदेह , अकेलापन , और आरामदेह जीवन में वापस जाने की लालसा को महसूस किया.
मदर टेरेसा ने जल्दी ही एक घर कुष्ठ से पीड़ित लोगों के लिए खोला , और एक आश्रम जिसे  “शांति नगरकहा गया. मिशनरीज ऑफ चेरिटी ने कई कुष्ठ रोग क्लीनिक की स्थापना की,पूरे कलकत्ता में दवा उपलब्ध कराने , पट्टियाँ और खाद्य पदार्थ प्रदान करने के लिए ठोस कदम उठाये.  मदर टेरेसा ने उनके लिए घर बनाने के लिए जरूरत महसूस की. उन्होंने 1955 में निर्मला शिशु भवन खोला जहाँ बेघर अनाथों के लिए स्थान था,बहुत सारा प्रेम था.धीरे धीरे भारत के सभी स्थानों में और विश्व भर में अनाथालयों, और कोढियों के लिए आश्रम बनाए गए.1965 में उनके मिशन ऑफ़ चैरिटीको पोप जॉन पॉल Vl ने कैथोलिक चर्च की मान्यता प्रदान की.
मदर टेरेसा सेवा को ईश्वर की आराधना समझती थीं. उनका मानना था ईश्वर शान्ति से प्राप्त किया जा सकता है.जैसे ब्रह्माण्ड में ग्रह चक्कर लगाते हैं बिना शोर किये या जैसे वृक्ष फूल और फल देते हैं बेआवाज़, वैसे ही शांत भाव से सेवा ही ईश्वर तक जाने का मार्ग है.
मदर टेरेसा के बारे में लेख लिखना आसां नहीं है,यूँ तो ऊपर से देखने में उनका जीवन सादा सरल और सेवा में लिप्त एक नर्स का जीवन लगता है परन्तु उनके भीतर झाँकने पर ही हम जान सकेंगे कि उन्होंने जीवन कितनी मुश्किलों ,परेशानियों,आलोचनाओं और विरोध का सामना किया.
उन्होंने अपने एक पत्र में लिखा भी है कि- मेरी मुस्कराहट एक छलावा है जिसे मैंने ओढ़ रखा है”.....
लोगों ने उन पर धर्म परिवर्तन के इलज़ाम लगाए,उन्हें समाज सुधारक समझा गया जबकि उनका एक मात्र ध्येय सिर्फ़ और सिर्फ ज़रूरतमंदों सेवा था.वे कहती थीं जन्म से मैं अल्बेनियन हूँ,नागरिक भारत की हूँ और कर्म से पूरे विश्व की और ह्रदय मेरा जीसस का है.वे एक सच्ची कैथोलिक नन थीं.
मदर टेरेसा को उनके कार्यों के लिए भारत ही नहीं पूरे विश्व में सराहा गया और सम्मानित किया गया. 1962 में उन्हें रेमोन मैगसेसे अवार्ड दिया गया, 1979 में उन्हें नोबेल प्राइज़ से नवाज़ा गया. 2003 में कैथलिक चर्च द्वारा उनका बीटिफिकेशनकिया गया अर्थात संत की उपाधि दिए जाने की दिशा में तीसरा कदम. अब वे धन्यकहलाईं.
1996 तक 100 देशों में तकरीबन 517 मिशन का संचालन वे कर रहीं थीं.
1983 में वे पोप जॉन पॉल ll से मिलने रोम जा रहीं थीं तब उन्हें पहला हृदयाघात हुआ.फिर दूसरा दिल का दौरा उन्हें 1989 में पड़ा जिसके बाद उन्हें पेसमेकर लगाया गया. इसके बाद उनका स्वास्थ निरंतर गिरता गया.  13 मार्च 1997 को उन्होंने मिशन ऑफ़ चेरिटी के प्रमुख के पद से इस्तीफा दिया और 5 सितम्बर 1997 को इस पवित्र आत्मा ने दुनिया को अलविदा कह दिया.
भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री की उपाधी दी और 1980 में उन्हें सर्वोच्च सम्मान भारतरत्नसे भी नवाज़ा गया. ये सभी उपाधियाँ और सम्मान समाज को उनके योगदान के आगे नगण्य हैं.मेरी राय में मदर टेरेसा  20वीं सदी की सबसे बड़ी मिसाल हैं मानवता और परोपकार के क्षेत्र में.
मदर कहती थीं अगर आप प्यार के दो बोल सुनना चाहते हैं तो कम से कम एक बोल आपको बोलना पड़ेगा...जैसे किसी दीपक को जलने के लिए तेल डालना बहुत आवश्यक है.
मदर टेरेसा ने लोगों की निस्वार्थ भाव से सेवा की और उनके दुःख बाँटें,उनके आँसू पोछे... इसलिए वे सर्वप्रिय बनी.
अंत में मैं छायावाद की महान कवियित्री
महादेवी वर्मा जीके विचार साझा करना चाहूंगी कि दुःख सारे संसार को एक में बाँध रखने की क्षमता रखता है.हमारे असंख्य सुख हमें चाहे मनुष्यता की पहली सीढ़ी तक भी न पहुंचा सकें,किन्तु हमारा एक बूँद आँसू भी जीवन को अधिक मधुर,अधिक उर्वर बनाए बिना नहीं गिर सकता.


अनुलता 

 

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मौसम अपने संक्रमण काल में है|धीरे धीरे बादलों में पानी जमा हो रहा है पर बरसने को तैयार नहीं...शायद उनकी आसमान से यारी छूट नहीं रही ! मोह...